अलाउद्दीन खिलजी:- खिलजी वंश की स्थापना मध्यकालीन भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण कालखंड को दर्शाती है। यह दिल्ली सल्तनत का दूसरा महत्वाकांक्षी शासन था। इसकी स्थापना जलालुद्दीन फिरोजशाह खिलजी द्वारा 1290 में की गयी थी। यह वंश लगभग 30 वर्षो तक शासन किया। खिलजी वंश का सबसे प्रमुख शासक कुल पाँच थे-
- जलालुद्दीन फिरोजशाह खिलजी
- अलाउद्दीन खिलजी
- शिहाबुद्दीन उमर
- कुतुबुद्दीन मुबारक शाह ख़िलजी
- नासिरुद्दीन खुसरोशाह
खिलजी क्रांति का अर्थ है- जाति व नस्ल आधारित शासन व्यवस्था की समाप्ति, क्योंकि उच्च तुर्क के स्थान के स्थान पर निम्न तुर्कों ने सत्ता संभाल लिया था। इसके कुछ अप्रत्यक्ष अर्थ भी हैं- धर्म की राजनीति का अलगाव; प्रतिभा या योग्यता के आधार पर अधिकारीयों का चयन; प्रशासन का सामाजिक विस्तार। मोहम्मद हबीब ने तुर्कों के आगमन को “नगरीय क्रांति” से जोड़ा, जबकि अलाउद्दीन ख़िलजी के कार्यो को “ग्रामीण क्रांति” से जोड़ा है।
अलाउद्दीन खिलजी का इतिहास
अलाउद्दीन ख़िलजी, जलालुद्दीन ख़िलजी का भतीजा था। अलाउद्दीन खिलजी के पिता की मृत्यु के बाद उसने इसका पालन-पोषण किया और बाद में अपना दामाद बना लिया। सर्वप्रथम जलालुद्दीन खिलजी ने इलाहबाद जिले में कड़ा-मानिकपुर की जागीर अलाउद्दीन को प्राप्त हुई। इन्होंने स्वयं को जुलाई 1296 में सुल्तान घोषित कर “सिकंदर-ए-सानी” या “सिकंदर द्वितीय सानी” की उपाधि धारण की और अक्टूबर 1296 में राज्याभिषेक करवाया।
अलाउद्दीन खिलजी के युद्ध और विजय (Alauddin-khilji)
उत्तर भारत अभियान
गुजरात पर आक्रमण (1298-99)
गुजरात का राज्य उपजाऊ भूमि एवं व्यापार के कारण समृद्ध था। उस समय यहाँ का शासक राजकर्ण था। यहाँ अलाउद्दीन ने अपनी सेना की दो टुकड़ी भेजी थी। उलूग खाँ को सिंध की ओर से तथा नुसरत खाँ को राजपुताना के मार्ग से भेजा। लेकिन राजकर्ण ने सामना नहीं कर पाया और दक्षिण में देवगिरी के शासक रामचंद्र देव के पास शरण लिया।
गुजरात अभियान की विजय के बाद कई नगर के साथ सोमनाथ मंदिर को लुटा। उसके बाद खम्भात बंदरगाह पर आक्रमण के समय एक हिन्दू किन्नर मलिक काफूर को नुसरत खाँ ने ख़रीदा जिसे “हजार दिनारी” कहा जाता है।
रणथंभौर पर आक्रमण (1301)
रणथंभौर राजपूताना का सबसे शक्तिशाली राज्य माना जाता है। सुल्तान ने उलूग खाँ और नुसरत खाँ को रणथंभौर पर आक्रमण के लिए भेजा लेकिन लगभग 1 साल तक कोई सफलता नहीं मिली। लेकिन अंत में 1301 ई. में राणा हम्मीरदेव के प्रधानमंत्री रणमल सुल्तान से मिल कर राणा हम्मीरदेव को वीरगति प्राप्त कराया। “हम्मीर रासो” के अनुसार, हम्मीर की रानी रंग देवी के साथ कई महिलाओं ने जौहर (आग में कूदकर आत्मदाह करना) कर लिया था।
चित्तौड़ की विजय (1303)
रणथंभौर के बाद 1303 ई. में चितौड़ की रानी पद्मावती की सुंदरता से प्रभावित होकर उसने चितौड़ पर आक्रमण की योजना बनाई। चितौड़ के राणा रतन सिंह ने घेरेबंदी के सात माह बाद आत्मसमर्पण कर दिया जिसके बाद अलाउद्दीन ने अपने बेटे खिज्र खाँ को नियुक्त किया। फिर चितौड़ का नाम बदलकर खिज्राबाद कर दिया। इस अभियान में अमीर खुसरो सुल्तान के साथ था। मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी रचना “पद्मावत” में इसका उल्लेख किया।
मालवा की विजय (1305)
चितौड़ की विजय के बाद राजपूतों की रियासतों ने सुल्तान के अधीनता स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया। लेकिन मालवा के राजा महलकदेव ने अधीनता स्वीकार नहीं की थी जिसके परिणामस्वरूप 1305 ई. मुल्तान के सूबेदार आइन-उल-मुल्क को मालवा पर आक्रमण के लिए भेजा, जहाँ उसे संघर्ष करना पड़ा फिर किले पर अधिकार प्राप्त कर लिया। उसके पश्चात उज्जैन, मांडू, धार, चंदेरी तथा जालौर पर भी सुल्तान का अधिकार हो गया था।
मारवाड़ की विजय (1308)
मारवाड़ में सुल्तान ने स्वयं आक्रमण किया और मारवाड़ के के परमार राजपूत शासक शीतलदेव पर आक्रमण किया, अंततः वह मारा गया और सुल्तान ने कमालुद्दीन गुर्ग को सेवान (मारवाड़) का शासक नियुक्त किया। फिर 1311 ई. में जालौर के शासक कान्हणदेव परास्त हुआ था। इसकी के साथ अलाउद्दीन खिलजी ने राजस्थान विजय अभियान पूरा किया।
दक्षिण भारत की विजय
मध्य युग का पहला शासक जिसने विंध्य पार किया। कुछ इतिहासकार का कहना है उसका मुख्य उद्देश्य दक्षिण अथाह संपदा को हासिल करना था। दक्षिण अभियान का नेतृत्व मलिक काफूर ने किया। इसकी जानकारी बरनी कृत “तारीख-ए-फिरोजशाही” तथा अमीर खुसरो कृत “खजायन-उल-फुतुह” एवं इसामी की रचना “फुतुह-उस-सलातीन” से मिलती है।
देवगिरि का आक्रमण (1307-08)
सुल्तान बनने से पहले भी 1296 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरि के राजा रामचंद्र देव को पराजित किया। इस पर आक्रमण के कारण सुल्तान को कर न देना और गुजरात के शासक रायकर्ण को शरण देना था। सुल्तान ने मलिक काफूर को देवगिरि पर आक्रमण के लिए भेजा।
तेलंगाना (वारंगल) की विजय (1309-10)
1303 ई. में वारंगल के काकतीय वंश के खिलाफ असफल अभियान से सुल्तान ने दोबारा 1309-10 के बीच मलिक काफूर के नेतृत्व में एक सेना भेजी। इस युद्ध में मलिक काफूर को देवगिरी के राजा ने सहायता किया। इस युद्ध का परिणामस्वरूप वारंगल के शासक प्रताप रुद्रदेव ने समर्पण कर दिया और सुल्तान को वार्षिक कर देना स्वीकार किया। इसी समय में रुद्रदेव ने मलिक काफूर को प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया।
पाण्ड्य राज्य की विजय (1311)
पाण्ड्य राज्य दक्षिण भारत में सुन्दर पाण्ड्य और वीर पाण्ड्य, दो भाइयों के बीच सिंहासन को लेकर गृह-युद्ध चल रहा था। सुन्दर पाण्ड्य ने अपने भाई के विरुद्ध सुल्तान से सहायता माँगी सुल्तान ने मलिक काफूर को 1311 में आक्रमण के लिए भेजा। इसने इसकी राजधानी मदुरै पर अधिकार कर लिया और पूरा नगर को लूट लिया, सारे मंदिर नष्ट कर दिए।
देवगिरि पर आक्रमण (1313)
देवगिरि के राजा रामचंद्र देव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शंकरदेव या सिहंनदेव गद्दी पर बैठा। उसने दिल्ली से अपने राज्य को स्वतंत्र कर “कर” देना बंद कर दिया। जिसके बाद 1313 ई. में सुल्तान ने मलिक काफूर को पुनः देवगिरी पर आक्रमण के लिए भेजा और शंकरदेव को मार दिया।
अलाउद्दीन खिलजी और मंगोल आक्रमण
1297-98 ई. अलाउद्दीन खिलजी ने जफ़र खाँ एवं उलूग खाँ के नेतृत्व में मंगोल आक्रमणकारी कादर को जालंधर के निकट परास्त कर दिया था। बड़ी संख्या में मंगोल स्त्रियों एवं बच्चों को गुलाम बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। 1299 ई. में सल्दी के नेतृत्व में मंगोलों का दूसरा आक्रमण हुआ, जिसमे जफ़र खाँ ने उसे परास्त कर सेहबान (सिबिस्तान) पर अधिकार कर लिया। फिर 1299 ई. में कुतलुग ख़्वाजा ने दिल्ली पर आक्रमण करने आया लेकिन उसका नेतृत्व सुल्तान सेना लेकर कीली के मैदान में पहुंच गया। जिसमे मंगोल की पराजय हुई और जफ़र खाँ वीरगति प्राप्त हुआ।
1303 ई. में मंगोल नेता तार्गी ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। जिसमे सुल्तान ने भागकर सीरी में शरण लिया। दो माह के घेरेबंदी के बाद मंगोल लूटपाट करके चला गया। 1305 ई. में मंगोल आक्रमणकरियों अलीबेग और तातार्क को सेनापति मालिक काफूर एवं गाजी मलिक द्वारा कैद कर लिया तथा उनका क़त्ल कर सीरी के किले के दिवार चिनवा दिया। 1306 ई. में कबक (कोपेक), इकबालमंद, तइबू और अन्य मंगोल के आक्रमण को अलाउद्दीन खिलजी ने विफल कर दिया।
अलाउद्दीन खिलजी के द्वारा किये गए सुधार
प्रशासनिक सुधार
अलाउद्दीन खिलजी ने प्रशासन को मजबूत बनाया तथा अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी आदि पर पाबंदी लगाने का उल्लेखनीय कार्य किया। उसने सार्वजनिक सेवाओं में भर्ती के मामले में राज्य की नीति को उदार बनाया। मामलुक सुल्तानों ने सभी उच्च पदों को विदेशी आप्रवासियों के लिए आरक्षित कर दिया था।
अलाउद्दीन खिलजी ने प्रजातीय विभेदीकरण की दस नीति को पृथक कर दिया तथा सार्वजनिक सेवाओं को विशेषाधिकार प्राप्त मुस्लिम आप्रवासियों सहित, जनसाधारण तथा इस्लाम धर्म अपनाए हिंदुओं तक के लिए खुला छोड़ दिया गया। इस कदम से अलाउद्दीन खिलजी को काफी ख्याति प्राप्त हुई। उसकी वित्तीय नीतियां काफी प्रभावी साबित हुईं और देश में कम से कम दो शताब्दियों तक आर्थिक स्थिरता कायम रहीं। उसके द्वारा किए गए आर्थिक सुधारों में मूल्यों का निर्धारण उपभोक्ता वस्तुओं की राशनिंग, बाजार नियंत्रण आदि प्रमुख थे।
उचित पद के लिए उचित व्यक्ति की नियुक्ति करने में वह माहिर था। सभी दक्ष एवं कुशल व्यक्तियों को राज्य के लिए सेवाएं अर्पित करने का अवसर दिया गया तथा उन पर गुप्त नियंत्रण रखने के लिए गुप्तचर तंत्र की भी व्यवस्था की गई।
शासन का केंद्रीकरण
अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का ऐसा पहला सुल्तान था जिसने उलेमा वर्ग के द्वारा राज्य पर नियंत्रण स्थापित किया उसके बाद उन्होंने अपने आपको “यामीन-उल-खिलाफत” नासिरी आमिर-उल-मुमनिन” (खलीफा का नायब) कहा। इनके राज्य के सिद्धांत को अमीर खुसरो ने अपनी पुस्तक “खजाइनुल-फुतुह” में सुल्तान को “विश्व का सुल्तान” और “जनता का चरवाहा” का उपाधि दिया।
न्याय व्यवस्था
सुल्तान ने शांति व्यवस्था के लिए न्याय व्यवस्था पर काफी ध्यान दिया। अलाउद्दीन का दंड-विधान काफी कठोर था जैसे संदेह होने पर अपराधियों के साथी को भी मृत्यु-दंड तथा अंग-भंग का दंड दिया जाता था। राज्य का सर्वोच्च न्यायिक सुल्तान के पास था लेकिन सुल्तान के बाद “सद्र-उस-सुदूर” या “काज़ी-उल-कुजात” था फिर उसके नीचे नायब-काजी होता था। इनके न्याय व्यवस्था का जिक्र ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है “वह भाईचारे अथवा परिवारिक संबंधों की भी चिंता नहीं करता था और बिना किसी भेदभाव के दंड दिया करता था।”
स्थायी सेना की व्यवस्था
यह पहला सुल्तान था जिसने स्थायी सेना की व्यवस्था की जिसको हमेशा राजधानी में तैनात थी, इसके मंत्री को “आरिज-ए-मुमालिक” नियुक्त था। सैनिक योग्यता के आधार पर भर्ती होती थी सैनिक की हुलिया “दीवान-ए-आरिज” कहलाता था। इन्होंने सैनिकों को जागीर देने की प्रथा ख़त्म कर दिया था। राजकोष से वेतन का प्रबंध किया। सैनिक का वेतन 234 टंका प्रतिवर्ष था। एक अतिरिक्त घोड़ा रखने पर 78 टंका वार्षिक मिलते थे। एक घोड़े रखने वाले को एक-अस्पा तथा दो घोड़े रखने वाले सैनिक को द्वी-अस्पा कहा जाता था। सुल्तान के समय में घोड़े को दागने की प्रथा प्रारम्भ हुई।
आर्थिक सुधार
संपत्ति का जब्तीकरण
अलाउद्दीन खिलजी का मानना था कि अधिक धन संग्रहण के कारण लोगों में विद्रोह की भावना पनपती है। इसलिए उन सबसे भूमि छीन ली, जिन्हे “मिल्क” (राज्य द्वारा प्रदत्त संपत्ति, इनाम, इदरार, पेंशन) तथा “वफ्फ़” (धमार्थ प्राप्त हुई भूमि) के रूप में मिली। इन्होने पहले से प्रचलित जागीर प्रथा को समाप्त कर दिया और भूमि पर राज्य के नियंत्रण से राजस्व में भी वृद्धि हुई थी।
कर वृद्धि और वसूली में कठोरता
अलाउद्दीन खिलजी ने करों में बहुत वृद्धि कर दिया। हिन्दुओं से भूमि कर उपज का 50 प्रतिशत तथा मुसलमानों से एक चौथाई लिया जाता था। सुल्तान ने गैर-मुसलमानों पर चार प्रकार के कर लगा रखे थे जिसमे से जजिया कर, ख़राज या भूमिकर, घरी कर या गृहकर और चरी कर या चारागाह कर (दुधारू पशुओं पर) आदि थे। जकात मुसलमानों से लिया जाने वाला धार्मिक कर था।
ख़ुम्स (लूट का माल) का पाँचवा भाग सेना को, जबकि शेष भाग राज्य का होता था। सुल्तान ने कर वसूलने के लिए कठोर नियम बनाये जिसको वसूलने के लिए सेना को सौंपा जो काफी निर्दयता और कठोरता से कर वसूलते थे।
भूमि की माप
अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों में सबसे महत्वपूर्ण सुधर भूमि की माप करवाना था, भूमि के मापन को “मसाहत” कहा गया। भूमि माप का उद्देश्य यह पता लगाना कि कितनी भूमि पर कृषि होती है और राज्य की वास्तविक उपज क्या है? इस व्यवस्था को लागू करने के लिए योग्य और ईमानदार अधिकारी नियुक्त किये जाते थे और “दीवान-ए-मुस्तखराज” विभाग की स्थापना की।
अलाउद्दीन खिलजी का बाजार नियंत्रण
सुल्तान ने आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों को नियंत्रित करने तथा लोगों को बिना किसी असुविधा के इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कई आर्थिक सुधारों की घोषणा की। उसने वस्तुओं के मूल्य “उत्पादन लागत” के सिद्धांत पर आधारित किए।अलाउद्दीन एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसकी आकांक्षाओं में अपने राज्य का विस्तार और मंगोलो का मुकाबला करना प्रमुख था। सुल्तान को “सार्वजनिक वितरण प्रणाली” का जनक कहा जाता है।
इस आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु एक विशाल स्थायी सेना की आवश्यकता थी। इनती बड़ी सैनिक शक्ति को इस प्रकार कायम रखना कि राज्य के साधनों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े, निश्चय ही एक कठिन कार्य था। इसके लिए सैनिक व्यय कम किया जाता था। दिल्ली में व्यापरियों को “दीवान-ए-रियासत” लिखवाना पड़ता था और बाजार संचालन की व्यवस्था “सदर-ए-रियासत” नाम के अधिकारी कहलाते थे।
इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसने दैनिक जीवन की उपयोगी वस्तुओं का मूल्य इतना कम कर दिया कि निम्न वेतनभोगी सैनिक अपना जीवन-यापन आराम से कर सके। अलाउद्दीन ने अनाज, कपड़ा तथा अन्य वस्तुओं का मूल्य साधारण बाजार की दर से बहुत कम निश्चित किया। उसने खालसा गांवों से भू-राजस्व वस्तु के रूप में प्राप्त किया तथा अनाजों को सरकारी भंडारगृह में एकत्रित किया। इन भंडारों से संकटकालीन परिस्थितियों में लोगों को निम्न दर पर अनाज की आपूर्ति की जाती थी।
किसानों से अनाज खरीदने के लिए सरकारी अनुमति की व्यवस्था की गई। कोई आम व्यक्ति किसान से अनाज नहीं खरीद सकता था। दिल्ली के सभी व्यापारियों को “शहना-ए-मण्डी” पदाधिकारी के दफ्तर में अपने नाम लिखाने पड़ते थे। जिन व्यापारियों के पास अपनी पर्याप्त पूंजी नहीं थी। उन्हें राज्य की ओर से अग्रिम धन दिया जाता था। इन व्यापारियों को निश्चित दर पर क्रय-विक्रय करना होता था तथा नियम से विचलित होने की अनुमति नहीं थी। यदि कोई व्यापारी इन नियमों का उल्लंघन करता था तो जितना सौदा वह तौल में कम देता था उतना मांस उसके शरीर से काट लिया जाता था।
व्यापारियों को अनाज या अन्य वस्तुएं जमा करके रखने का अधिकार नहीं था, बल्कि मांग के अनुसार उन्हें वे वस्तुएं बेचनी पड़ती थीं। प्रमुख व्यक्तियों, अमीरों, पदाधिकारियों तथा अन्य धनी पदाधिकारियों को बाजार से बहुमूल्य वस्तुएं खरीदने से पहले शहाने-मण्डी के दफ्तर से अनुमति लेनी पड़ती थी। इन नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करवाने हेतु “दीवान-ए-रियासत” एवं “शहना-ए-मण्डी” के अधीनस्थ कई कर्मचारी होते थे तथा “अद्ल नामक एक न्यायाधीश” होता था।
अलाउद्दीन खिलजी की मूल्य एवं बाजार नियंत्रण की नीति काफी सफल हुई लेकिन इसका विस्तार दिल्ली एवं इसके निकटवर्ती क्षेत्रों तक ही विशेष रूप से रहा। सम्पूर्ण देश में इन नियमों को लागू करना कठिन था, लेकिन अलाउद्दीन खिलजी को इस बात का श्रेय मिलता है कि उसने विपरीत परिस्थितियों में समस्या को हल करने का प्रयत्न किया। अलाउद्दीन खिलजी मुद्रास्फीति तथा मूल्य वृद्धि के दुष्चक्र से राज्य की अर्थव्यवस्था की सुरक्षा करने में सफल रहा। उसने मुद्रा-प्रसार को रोकने तथा रहन-सहन के खर्च को कम करने में भी सफलता प्राप्त की।
- अलाउद्दीन के बाजार नियंत्रण अधिकारी
- शहना-ए-मण्डी – बाजार अधीक्षक
- दीवान-ए-रियासत – बाजार नियंत्रणक
- सराय अद्ल – न्याय अधिकारी
- बरीद-ए-मंडी – बाजार निरीक्षक
- मन्हैयान – गुप्तचर
- अलाउद्दीन खिलजी की मंत्रिपरिषद
- दीवान-ए-वजारत – वजीर (मुख्यमंत्री)
- दीवान-ए-इंशा – शाही आदेश का पालन
- दीवान-ए-आरिज – सैन्य मंत्री
- दीवान-ए-रसातल – विदेश विभाग