बौद्ध धर्म (Buddhism) के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध थे। बुद्ध का अर्थ है “प्रकाशमान” अथवा “जागृत” होता है। उनका जन्म नेपाल की तराई में स्थित कपिलवस्तु लुम्बिनी ग्राम में शाक्य क्षत्रिय कुल में 563 ई.पू. में हुआ था। इनकी माता का नाम महामाया (कोलिय गणराज्य की राजकुमारी) तथा पिता का नाम शुद्धोधन (शाक्यों के गणराजा) था। जन्म के सातवें दिन माता का देहान्त हो जाने से सिद्धार्थ का पालन-पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया। 16 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ का विवाह शाक्य कुल की कन्या यशोधरा से हुआ जिनका बौद्ध ग्रंथों में अन्य नाम बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना मिलता है। सिद्धार्थ से यशोधरा को एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम राहुल था।
सिद्धार्थ के जीवन की चार दृश्य
जब गौतम अपने महल से सुबह उठा और बाहर आकर देखा तो उन्होंने देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति, बीमार व्यक्ति, मृत व्यक्ति, संन्यासी (प्रसन्न मुद्रा में) जिसके बाद से उनके मन में वैराग्य की भावना उठी और जिससे उन्होंने सांसारिक समस्याओं से व्यथित होकर सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग दिया। इस त्याग को बौद्ध धर्म में महाभिनिष्क्रमण कहा गया है। गृहत्याग के उपरान्त सिद्धार्थ अनोमा नदी के तट पर स्थित “अनुवैनेय” नामक स्थान पर सिर मुंडवाकर भिक्षुओं का वस्त्र धारण किया।
गौतम बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति
लगभग छह वर्षो तक ज्ञान की खोज में इधर-उधर भटकते रहे जिसे आर्य पर्येषणा कहलाता है। सर्वप्रथम वैशाली के समीप अलार कलाम (सांख्य दर्शन का आचार्य) नामक संन्यासी के आश्रम में आये। इसके उपरान्त उन्होंने उरूवेला के सेनापति ग्राम (बोधगया) के लिए प्रस्थान किया जहां उन्हें पांच परिव्राजक (महानाम, भद्धिय, कौडिन्य, अस्सजी- वाप तथा अंसग) मिले।
छह वर्ष तक घोर तपस्या के बाद 35 वर्ष की आयु में वैशाख पूर्णिमा की रात पीपल (वट) वृक्ष के नीचे और निरंजना (पुनपुन) नदी के तट पर सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी दिन से तथागत हो गये। ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए। उरूवेला से बुद्ध सारनाथ (ऋषि पत्तनम एवं मृगदाव) आये यहां पर उन्होंने पांच ब्राह्मण संन्यासियों को अपना प्रथम उपदेश दिया, जिसे बौद्ध ग्रन्थों में “धर्म चक्र-प्रवर्तन” के नाम से जाना जाता है।
बौद्ध धर्म का प्रचार (Buddhism)
बौद्ध संघ का सर्वप्रथम सारनाथ से प्रारम्भ हुआ। महात्मा बुद्ध ने तपस्सु तथा काल्लिक नामक दो शूद्रों को बौद्ध धर्म का सर्वप्रथम अनुयायी बनाया। बुद्ध ने अपने जीवनकाल का सर्वाधिक उपदेश कोशल देश की राजधानी श्रावस्ती में दिये। उन्होंने मगध को अपना प्रचार केन्द्र बनाया। बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायी शासकों में बिम्बिसार, प्रसेनजित तथा उदयन थे। बुद्ध के प्रधान शिष्य उपालि व आनन्द थे।
महात्मा बुद्ध की अंतिम शिक्षा
महात्मा बुद्ध अपने जीवन के अंतिम पड़ाव के समय हिरण्यवती नदी के तट पर स्थित कुशीनारा पहुंचे। जहां उनका 483 ई.पू. में 80 वर्ष की अवस्था में मृत्यु हो गई। इसे बौद्ध परम्परा में “महापरिनिर्वाण” के नाम से जाना जाता है। उन्होंने मृत्यु से पूर्व कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिया। महापरिनिर्वाण के बाद बुद्ध के अवशेषों को आठ भागों में विभाजित किया गया।
बौद्ध धर्म की शिक्षाएं एवं सिद्धांत-
बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं-
- बुद्ध
- धम्म
- संघ
बौद्ध धर्म के मूलाधार चार आर्य सत्य हैं-
- दुःख
- दुःख समुदाय
- दुःख निरोध
- दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा (दुःख निवारक मार्ग) अर्थात अष्टांगिक मार्ग।
दुःख को हरने वाले तथा तृष्णा का नाश करने वाले अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग हैं। जिन्हें मज्झिम प्रतिपदा अर्थात मध्यम मार्ग भी कहते हैं।
अष्टांगिक मार्ग के तीन मुख्य भाग हैं-
- प्रज्ञा (सम्यक् ज्ञान)
- शील (सम्यक् आचरण)
- समाधि (सम्यक् ध्यान)
इन तीन प्रमुख भागों के अन्तर्गत आठ उपायों को बात की गयी है, वे निम्न हैं-
- सम्यक् दृष्टि :- वस्तु के वास्तविक स्वरुप की समझ
- सम्यक् संकल्प :- लोभ, घृणा व हिंसा से मुक्त विचार
- सम्यक् वाणी :- अप्रिय वचनों का त्याग
- सम्यक् कर्मान्त :- सत्कर्मों का अनुसरण
- सम्यक् आजीव :- सत्कर्मों का अनुसरण
- सम्यक् व्यायाम :- सदाचार युक्त आजीविका
- सम्यक् स्मृति :- मानसिक/शारीरिक स्वास्थ्य
- सम्यक् समाधि :- एकाग्रता
अष्टांगिक मार्ग को भिक्षुओं का “कल्याण मित्र” कहा गया। बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य के जवीन पर परम लक्ष्य है- निर्वाण प्राप्ति। निर्वाण का अर्थ है “दीपक का बुझ जाना” अर्थात, ‘जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना’। निर्वाण इसी जन्म से प्राप्त हो सकता है, लेकिन महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही संभव है।
गौतम बुद्ध की दस शील
बुद्ध ने दस शीलों के अनुशीलन को नैतिक जीवन का आधार बनाया है। ये दस शील इस प्रकार हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, नृत्य गान का त्याग, आभूषण का त्याग करना, समय पर भोजन करना, विलासिता पूर्ण शय्या का त्याग करना एवं स्वर्ण-चाँदी का त्याग करना। जिस तरह दुःख समुदाय का कारण जन्म है उसी तरह जन्म का कारण अज्ञानता का चक्र है। इस अज्ञानता रूपी चक्र को “प्रतीत्य समुत्पाद” कहा जाता है।
प्रतीत्य समुत्पाद महात्मा बुद्ध के उपदेशों का सार एवं उनकी सम्पूर्ण शिक्षाओं का आधार है। प्रतीत्य समुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है- प्रतीत्य (किसी वस्तु के होने पर) समुत्पाद (किसी अन्य वस्तु की उपत्ति)। प्रतीत्य समुत्पाद के 12 क्रम है जिसे द्वादश निदान कहा जाता है जो भूत, भविष्य, तथा वर्तमान से संबंधित है- जाति (जन्म), जरा-मरण (समस्त दुखों का सामूहिक नाम), अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नाम-रूप, स्पर्श, तृष्णा, वेदना, षडायतन, भव, उपादान।
प्रतीत्य समुत्पाद में ही अन्य सिद्धांत जैसे- क्षण-भंगवाद तथा नैरात्मवाद आदि समाहित है। बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी हैं वास्तव में बुद्ध ने ईश्वर के स्थान पर मानव प्रतिष्ठा पर ही बल दिया। बौद्ध धर्म अनात्मवादी है इसमें आत्मा की परिकल्पना नहीं की गई है। यह पुनर्जन्म में विश्वास करता है। अनात्मकवाद को नैरात्मवाद भी कहा जाता है।
बौद्ध संघ की कार्यप्रणाली
बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था एवं जाति प्रथा का विरोध किया। बौद्ध संघ का दरवाजा हर जातियों के लिए खुला था। स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश का अधिकार प्राप्त था। इस प्रकार वह स्त्रियों के अधिकारों का हिमायती था। संघ की सभा में प्रस्ताव (नत्ति) का पाठ होता था। प्रस्ताव पाठ को अनुसावन कहते थे। सभा की वैध कार्यवाही के लिए न्यूनतम संख्या कोरम 20 थी। संघ में प्रविष्ट होने को उपसम्पदा कहा जाता था।
बौद्ध संघ का संगठन गणतंत्र प्रणाली पर आधारित था। संघ में चोर, हत्यारों, ऋणी व्यक्तियों, राजा के सेवक, दास तथा रोगी व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित था। बौद्धों के लिए महीने के 4 दिन अमावस्या, पूर्णिमा और दो चतुर्थी दिवस उपवास के दिन होते थे। अमावस्या, पूर्णिमा तथा दो चतुर्थी दिवस को बौद्ध धर्म में उपोसथ (“रोया” श्रीलंका में) के नाम से जाना जाता है।
बौद्धों का सबसे पवित्र एवं महत्वपूर्ण त्यौहार वैशाख पूर्णिमा है जिसे “बुद्ध पूर्णिमा” के नाम से भी जाना जाता है। बौद्ध धर्म में बुद्ध पूर्णिमा के दिन का इसलिए महत्व है क्योंकि इसी दिन बुद्ध का जन्म, ज्ञान का प्राप्ति एवं महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई। महात्मा बुद्ध से जुड़े आठ स्थान लुम्बिनी, गया, सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती, संकास्य, राजगृह तथा वैशाली को बौद्ध ग्रंथों में “अष्टमहास्थान” नाम से जाना गया।
बोरोबुदूर का बौद्ध स्तूप जो विश्व का सबसे विशाल तथा अपने प्रकार का एक मात्र स्तूप का निर्माण शैलेन्द्र राजाओं ने मध्य जावा, इण्डोनेशिया में कराया। बुद्ध के “पंचशील सिद्धांत” का वर्णन छान्दोग्य उपनिषद में मिलता है।
बौद्ध संगीतियां-
- प्रथम-
- स्थान- राजगृह (सप्तपर्णी गुफा)
- समय- 483 ई.पू.
- अध्यक्ष- महाकस्सप
- शासनकाल- अजातशत्रु (हर्यक वंश)
- उद्देश्य- बुद्ध के उपदेशों को दो पिटकों विनय पिटक तथा सुत्त पिटक में संकलित किया गया।
- द्वितीय-
- स्थान- वैशाली
- समय- 383 ई.पू.
- अध्यक्ष- साबकमीर (सर्वकामनी)
- शासनकाल- कालाशोक (शिशुनाग वंश)
- उद्देश्य- अनुशासन को लेकर मतभेद के समाधान के लिए बौद्ध धर्म स्थाविर एवं महासंघिक दो भागों में बंट गया।
- तृतीय-
- स्थान- पाटलिपुत्र
- समय- 251 ई0पू0
- अध्यक्ष- मोग्गलिपुत्ततिस्स
- शासनकाल- अशोक (मौर्यवंश)
- उद्देश्य- संघ भेद के विरूद्ध कठोर नियमों का प्रतिपादन करके बौद्ध धर्म को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयत्न किया गया। धर्म ग्रन्थों का अंतिम रूप से सम्पादन किया गया तथा तीसरा पिटक अभिधम्मपिटक जोड़ा गया।
- चतुर्थ-
- स्थान- कश्मीर के कुण्डलवन
- समय- लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी
- अध्यक्ष- वसुमित्र एवं अश्वघोष उपाध्यक्ष
- शासनकाल- कनिष्क कुषाण वंश
- उद्देश्य- बौद्ध धर्म का दो सम्प्रदायों हीनयान तथा महायान में विभाजन।